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Baccho ke rog: jaanie kaise rakhen apane bachche ko svasth aur muskaraate hue, bachapan kee saphalata kee yaatra mein<br>
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BacchoKeRog:SvasthBacchoKe Lye Upaayबच्चों के रोग: स्वस्थ बचपन के लिए उपाय
Bacchokerog:svasthBacchoke lye upaay | बच्चों के रोग: स्वस्थ बचपन के लिए उपाय • प्रायः यह देखने में आता है कि अधिकांश बीमारियां जो वयस्कों में होती हैं, वहीं बच्चों में भी पाई जाती हैं, किंतु बच्चे क्योंकि बड़ों की अपेक्षा ज्यादा नाजुक होते हैं और विकसित हो रहे होते हैं, इसलिए वे रोग की चपेट में जल्दी आ जाते हैं। आयु के अनुसार बच्चे निम्न 3 प्रकार के होते हैं- • क्षीरपा का अर्थ है जो केवल दूध पीते हैं • क्षीरप व अन्नज दोनोंअन्नज अर्थात अन्न खाने वाले • केवल मां का दूध पीते बच्चों की बीमारियों के लिए माता की उपचार करनी चाहिए, ताकि औषधि से प्रभावित दूध के द्वारा बच्चे की बीमारी दूर हो सके, जबकि अन्नज बच्चों के रोग युक्त होने पर, केवल बच्चे को ही औषधि देना उपयुक्त होता है, इसी प्रकार क्षीरप व अन्नज बच्चों को रोग होने पर माता व बच्चे दोनों की उपचार करनी चाहिए। बच्चों में पाई जाने वाली कुछ सामान्य बीमारियों की लाक्षणिक उपचार घर पर भी आसानी से की जा सकती है। जरूरत है सिर्फ आवश्यक जानकारी की, बच्चों की आम बीमारियोंपर कुछ अनुभव सिद्ध दवाइयां इस प्रकार हैं-
दांत निकलते वक्त • प्राय: दांत निकलते समय बहुत से बच्चों को तकलीफ उठानी पड़ती है, बच्चों के मसूड़े में दाहयुक्त सूजन, अधिक लार का बहना, हरे-पीले या सफेद दस्त, कभी-कभी उल्टी आदि लक्षण मिलते हैं, मसूड़ों में खुजली के कारण दूध पीते समय बच्चा स्तन को मुंह में दबाता है, किसी-किसी बच्चे में दांत निकलते समय खांसी, जुकाम, ज्वर, आंखें या कान में पीड़ा आदि विकार भी देखने को मिलते हैं, इन लक्षणों को देखकर चबराने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि ये कष्टदायक लक्षण स्वाभाविक रूप से होते हैं। अत: इन्हें दूर करने के लिए तीव्र उपचार हानिप्रद होता है, आवश्यकता इस बात की होती है कि बच्चे की देखभाल दक्षतापूर्वक की जाए। उपचार • पिप्पली (पीपर) चूर्ण को चुटकी भर लेकर शहद में मिलाकर मसूड़ों पर मलने से दांत बिना कष्ट के निकल आते हैं। • बालचातुर्भद्र चूर्ण 25 मिग्रा. की मात्रा में शहद के साथ चटाने से विशेष पतले दस्त कम हो जाते हैं।
मलावरोध • माता के अनुचित आहार-विहार के कारण उसका दूध दूषित हो जाता है, जिसकी वजह से बच्चे की पाचन शक्ति खराब होकर वायु विकारयुक्त हो जाती है, इसमें मल का सूख जाना, मल-त्याग का अभाव, पेट में दर्द, गुड़गुड़ाहट, उल्टी आदि लक्षण मिलते हैं और बच्चा रोते-रोते बेहाल हो जाता है। नीम के तेल का फाहा गुदा मार्ग में लगाने से मलावरोध दूर होता है। रात को बीज निकाला हुआ छुहारा पानी में भिगोकर सुबह उसे पानी में मसलकर निचोड़ लें, छुहारे को फेंक दें और वही पानी बच्चे को आवश्यकतानुसार पिला दें। बड़ी हरड़ को पानी के साथ पत्थर पर घिसकर उसमें मूंग के दाने के बराबर की मात्रा में काला नमक डालें, इसे कुछ गुनगुना गरम करके आवश्यकतानुसार दिन में 1 से 3 बार दें। मुंह के छाले • बच्चों के लिए यह रोग भी बहुत कष्टदायक होता है, इसमें मुख की श्लेष्म कला तथा जीभ पर लाल-लाल छोटे दाने निकल आते हैं, भूख कम लगना, मुंह से लार टपकना, मुंह में पीड़ा व जलन आदि लक्षण मिलते हैं।
उपचार • यदि बच्चे को मलावरोध या मलबद्धता हो तो सर्वप्रथम उसे दूर करना चाहिए। • सुहागे की खील को बारीक पीसकर शहद या ग्लिसरीन में मिलाकर छालों पर लगाने से शीघ्र लाभ मिलता है। पतले दस्त • बच्चे की आतें आरम्भ के 1-2 वर्ष तक बेहद संवेदनशील होती हैं, आहार-विहार में परिवर्तन होने से उसकी आंत पर भी वैसा ही प्रभाव पड़ता है। अतः क्षीरप बच्चों को दस्त लग जाने पर माता के आहार-विहार पर विशेष ध्यान देने की जरूरत पड़ती है, इसी प्रकार ऊपर का दूध पीने वाले बच्वों के दूध पर भी विशेष ध्यान देना चाहिए। • आरम्भ में बच्चे को गाय के दूध में समान मात्रा में पानी मिलाकर सेवन कराना चाहिए। तदोपरान्त धीरे-धीरे पानी की मात्रा कम करके केवल दूध देना उपयुक्त होता है. साधारणतयाः यदि बच्चे को दिन में तीन-चार दस्त हो जाएं तो इसमें किसी उपचार की आवश्यकता नहीं पड़ती है, किन्तु दस्तों की संख्या और मात्रा सामान्य से अधिक हो हो और मल दुर्गन्धयुक्त, हरे-पीले या रक्तवर्ण हो तो शीघ्र ही इसका उपचार करना चाहिए।
उपचार • बालचातुर्भद्र चूर्ण 250 मिग्रा. से। ग्राम की मात्रा में आवश्यकतानुसार शहद के साथ देने से अपच से उत्पन्न दस्त में विशेष लाभ मिलता है। • जायफल, लौंग, सफेद जीरा व सुहागा खील इन चारों को समान मात्रा में लेकर चूर्ण बना लें। 60 मिग्रा. से 500 मिग्रा. तक की मात्रा में आवश्यकतानुसार शहद के साथ दिन में एक-दो बार दें। • कर्पूर रस 60 मिग्रा. से 125 मिग्रा. की मात्रा में शहद के साथ प्रात:-सायं देने से विशेष लाभ होता है। बिस्तर पर मूत्र त्याग • प्रायः यह देखा गया है कि बच्चे रात्रि में अनजाने ही बिस्तर पर पेशाब कर देते हैं, जिससे माता-पिता बहुत परेशान होते हैं और बच्चे को डांटते-फटकारते हैं, ऐसा करना उचित नहीं है, क्योंकि उदर कृमि, मलावरोध, मूत्र प्रणाली में संक्रमण या मानसिक आघात आदि के कारण बच्चों को शय्या मूत्र की आदत पड़ जाती है, अत: इन कारणों को दूर करने का प्रयास करना चाहिए।
उपचार • बच्चे को डांटने-फटकारने की जगह प्यार से समझाना चाहिए, उनको रात्रि का भोजन जहां तक सम्भव हो शीघ्र कराना चाहिए। रात में द्रव पदार्थ कम दें या बिल्कुल न दें, बच्चों को सोने से पहले तथा अर्द्धरात्रि के समय जगाकर पेशाब करा देना ठीक होता है। • तारकेश्वर रस 125 मिग्रा. से 250 मिग्रा. की मात्रा में सुबह-शाम देने से लाभ होता है। उदर कृमि • बच्चों में यह रोग बहुत देखने को मिलता है, पेट में कृमि की अवस्था में बच्चे को पेट में दर्द बना रहता है और वह हमेशा गुदा स्थान को उंगली से खुजलाता है, बहुत से बच्चे रात्रि में दांत किटकिटाते हैं, कृमि की वजह से बच्चों में ज्वर, अरुचि, अंगों में शिथिलता, दस्त, शय्या मूत्र, उल्टी,सिर दर्द आदि लक्षण देखने को मिलते हैं। उपचार • अतीस तथा बायबिडंग का समभाग चूर्ण 125 मिग्रा. से 250 मिग्रा, की मात्रा में माता के दूध के साथ दिन में तीन-चार बार सेवन कराने से लाभ होता है।
बच को 125 मिग्रा. से 250 मिग्रा. की मात्रा में दूध के साथ मिलाकर 3-4 दिन तक पिलाने से कृमि नष्ट होते हैं। • बायबिडंग 125 मिग्रा., सुहागे की खील 60 मिग्रा. तथा कबीला 60 मिया को मिलाकर प्रात:-सायं शहद के रूप में चटाकर ऊपर से गरम पानी पिलाएं। पेशाब में रुकावट • इस रोग से बच्चे को पेट में दर्द, नाभि प्रदेश में भारीपन, पेशाब का अभाव जैसी शिकायतें महसूस होती हैं, इस अवस्था में पेशाब दाह और पीड़ा के साथ निकलता है या रुक-रुक कर धीरे-धीरे होता है, कभी-कभी पेशाब बिल्कुल बन्द हो जाता है। उपचार • नीबू के बोज का चूर्णणं बच्चे की नाभि में भरकर ऊपर से शीतल जल की धारा डालने से अवरोध दूर होता है, ढाक के फूल 20, कलमी सोडा 10 ग्राम तथा कपूर 3 ग्राम जल में पीसकर पेडू (नाभि के नीचे) पर मोटा लेप लगाने से पेशाब खुलकर आता है। • 50 ग्राम बकरी के दूध में 25 ग्राम कलमी सोडा मिलाकर, उसमें साफ कपड़ा भिगोकर पेडू पर रखने से भी शिकायत दूर हो जाती है।
टॉन्सिलाइटिस • टॉन्सिलाइटिस बच्चों को होने वाला रोग है। इस रोग में गलतुडिकाओं (Tonsils पें शोध व प्रज्वलन होता है। • टॉन्सिलाइटिस की उत्पत्ति चार-पांच वर्ष की आयु के बच्चों में अधिक होती है। घर से बाहर धूल-मिट्टी पड़ी, तेल-मिर्च की खट्टी-मोठी चीजें खाने से शोध होना स्वाभाविक है, क्योंकि ऐसी गन्दी चीजों से विभिन्न प्रकार के जीवाणु संक्रमण करते हैं। आधुनिक उपचार विज्ञान के अनुसार टॉन्सिलाइटिस रोग की उत्पत्ति स्टेप्टयोंको जीवाणुओं के कारण होती है। किसी छोटे-बड़े को यह रोग हो और कोई स्वस्थ व्यक्ति उसके उपयोग किए बर्तनों में कुछ खाए-पिए तो उसे भी यह रोग हो जाता है। लक्षण • रोगी की ग्रसनिका और तालू की श्लेष्म कला अधिक रक्तमय हो जाती है। शोध के कारण ऐसा होता है। शोध में उसमें पीब भी बनने लगता है और उपचार में विलम्ब व लापरवाही होने से इसका स्राव भी होने लगता है। • स्राव के भीतर ही जम जाने पर तुण्डिकाओं पर एक सफेद-सी स्लैष्मिक कला बन जाती है। ऐसी अवस्था में कान के नीचे शोध के रिह स्पष्ट होते हैं। रोगों को कुछ भी खाने-पीने में बहुत पौड़ा होती है। अधिक शोथ फैलने से स्वास तक लेने में कठिनाई होने लगती है। सिर दर्द भी होता है।
उपचार • वाटान्सिलाइटिस होने पर मुंड की स्वच्छता अधिक उपयोगी है। इसके लिए कुनकुने जल में फिटकिरी घोलकर गरारे करने से लाभ होता है। शुद्ध कुचला के बीजों का चूर्ण प्रतिदिन सुबह-शाम पांच मिग्रा. मात्रा में जल के साथ उपयोग करने से विशेष लाभ होता है। इसकी मात्रा चिकित्सक के परामर्श पर निर्धारित करनी चाहिए। • सहजन की पत्तियों को उबालकर उसका क्वाथ बनाएं और इसमें थोड़ा-सा नमक मिलाकर कुछ देर तक कुल्ले करें। ऊपर को मुंह करके गरारे करने से गले की हल्की सिंकाई होती है, साथ ही मुंह भी स्वच्छ होता है। डिहाइड्रेशन • शरीर में जल की मात्रा बहुत कम हो जाने से बच्चों में प्राय: डिहाइड्रेशन विकार हो जाता है। अतिसार या वमन होने पर अधिकांश बच्चे डिहाइड्रेशन के शिकार होते हैं। • धूप में अधिक देर तक रहने के कारण भी शरीर में जल की मात्रा कम हो जाती है। तीव्र ज्वर में भी जल की कमी हो जाती है। अनेक घरों में माता-पिता छोटे बच्चों को जल देना आवश्यक नहीं समझते।ऐसी स्थिति में छोटे बच्चों में प्राय: डिहाइड्रेशन हो सकता है।
विभिन्न परिवारों में माता-पिता सोचते हैं कि 6-7 मास तक बच्चे को जल पिलाने की क्या आवश्यकता है। उन्हें तो दूध से ही पानी मिल जाता है, लेकिन ऐसा सोचना बच्चे को बहुत हानि पहुंचाता है। दूध से बच्चे की जल की आवश्यकता पूरी नहीं हो पाती और आयु विकास के साथ बच्चा डिहाइड्रेशन का शिकार हो जाता है। जल की मात्रा पर्याप्त रहने से ही शरीर में सुचारु पाचन क्रिया होती है। अत्यधिक डिहाइड्रेशन मृत्यु का कारण भी बन सकता है। इसलिए डिहाइड्रेशन के लक्षण स्पष्ट होते ही तुरन्त उपचार करनी चाहिए। लक्षण • वमन या अतिसार होने पर डिहाइड्रेशन से सुरक्षा के लिए रोगी को सन्तरे, मौसमी या अनारका रस देना चाहिए अथवा ग्लूकोज पानी में घोलकर पिलाएं। डिहाइड्रेशन होने पर रोगी की जीभ सूख जाती है, थूक नहीं रहता और चेहरा उदास हो जाता है। बच्चे बार-बार पानी पीने की इच्छा प्रकट करते हैं। रोगी की त्वचा ठंडी अनुभव होती है। त्वचा पर रुक्षता दिखाई देती है। नाड़ी और हृदय की गति तीव्र हो जाती है। अधिक डिहाइड्रेशन होने पर रक्तचाप कम हो जाता है। • डिहाइड्रेशन की उपचार के साथ वमन, अतिसार, प्रवाहिका की उपचार भी करनी आवश्यक है, क्योंकि इसके बिना पर्याप्त लाभ होना सम्भव नहीं और इन रोगों के चलते डिहाइट्रेशन बार-बार होता रहेगा।
वमन की स्थिति में सन्तरे का रस देने से शीघ्र लाभ होता है। दूध में ग्लूकोज मिलाकर भी दिया जा सकता है। • नीबू की शिकंजी बनाकर पिलाने से वमन में अवरोध होता है और डिहाइड्रेशन नष्ट होता है। नारियल का जल पिलाने से बहुत शीघ्र लाभ होता है। आजकल सभी सरकारी अस्पतालों, डिस्पेंसरियों तथा कैमिस्टों के पास जीवन रक्षक घोल मिलता है, जो इस रोग में बेहद कारगर है। सूखा रोग • सन्तुलित व पौष्टिक आहार के अभाव में अधिकांश बच्चे सूखा रोग के शिकार हो जाते हैं। जनसाधारण में सूखा रोग को सुखण्डी फक्क तथा बाल मृन्दास्थि भी कहा जाता है। • सूखा रोग में बच्चा प्रतिदिन निर्बल होता जाता है। उसके हाथ-पांव सूखते जाते हैं। इसके साथ ही पेट बढ़कर आगे की ओर निकल जाता है। त्वचा का रंग पीला दिखाई देता है। • विशेषज्ञों के अनुसार कुपोषण अथवा आहार सन्तुलित नहीं होने पर कैल्शियम, फॉस्फेट और विटामिन D की कमी हो जाने से सूखा रोग की उत्पत्ति होती है। कैल्शियम के अभाव से अस्थियां निर्बल ही रह जाती हैं, उनका विकास नहीं होता और अधिक निर्बलता के कारण अस्थियां मुड़ भी जाती हैं।
आयुर्वेद में दूषित वातावरण और आहार को सूखा रोग का मुख्य कारण बताया है। इससे उदर में विकृतियां उत्पन्न होती हैं और पाचन क्रिया की विकृति से सूखा रोग की उत्पत्ति होती है। उपचार • सूखा रोग में प्राय: पाचन क्रिया विकृत हो जाती है। पाचन क्रिया को सुचारु बनाने के साथ सुपाच्य खाद्य पदार्थ देने चाहिए। अर्जुनारिष्ट या लिव-52 सिरप या गोलियां देने से अति शीघ्र लाभ होता है। • यकृत विकृति से सूखा रोग होने पर ऐसी औषधियां देनी चाहिए, जिससे यकृत ठीक हो जाए। इसके लिए मंडूर भस्म, शंख भस्म में से कोई एक औषधि दे सकते हैं। • बच्चे में में रोगनिरोधक शक्ति विकसित करने के लिए मुक्ता वटी या प्रवाल भस्म में से कोई एक औषधि तथा च्यवनप्राश खिलाने से भी शीघ्र लाभ होता है। सूखा रोग में तेल मालिश का बहुत लाभ देखा गया है। प्रतिदिन धूप में लिटाकर (शीत ऋतु में) जैतून, कॉडलीवर ऑयल अथवा महानारायण तेल की मालिश करें। ग्रीष्म ऋतु में छायादार स्थान पर मालिश करें। • यकृत विकृति की स्थिति में शिशु को वसायुक्त खाद्य पदाथों का सेवन बहुत कम कराएं। रोगी को छाछ, दही, पनीर आदि तथा फलों का रस दें। सन्तरा, मौसमी, अनार, टमाटर,
मूली, गाजर आदि बहुत लाभ पहुंचाते हैं। हरी सब्जियां और चावलों का मांड व सूप बहुत उपयोगी रहते हैं। • भांगरे के रस में थोड़ा-सा अजवायन का चूर्ण मिलाकर देने से बच्चों की यकृत वृद्धि नष्ट होती है। इससे बच्चे अधिक स्वस्थ और इष्ट-पुष्ट रहते हैं। यकृत वृद्धि में मूली की छोटी-छोटी फांकें काटकर नौसादर मिलाकर रखा है। प्रातः उठने पर शौचादि से निवृत्त कराकर बच्चे को उस भूली को खिलाने से बाहर लाभ होगा। मकोय का स्वरसे गरम करके यकृत वृद्धि पर लेप करने से वृद्धि नष्ट होती हैं। • नवायस लौह या लौह भस्म में से कोई भी एक औषधि देने से बहुत शीघ्र लाभ होता है। भोजन के साथ रोहितकारिष्ट उतना ही जल मिला कर प्रतिदिन उपयोग करें। काली खांसी • काली खांसी छोटे बच्चों को होने वाला एक भयंकर कष्टदायक रोग है। इस रोग का प्रकोप 6 महीने से लेकर 10-12 वर्ष तक की आयु के बच्चों पर सबसे अधिक होता है। संक्रामक होने के कारण एक बच्चे को काली खांसी हो जाने पर उसके सम्पर्क में आने वाले दूसरे बच्चे भी इस रोग का शीघ्र शिकार हो जाते हैं।
आधुनिक उपचार विशेषज्ञों के अनुसार काली खांसी बोर्डटेला पर्युसिस (Bordetella Pertussis) जीवाणुओं द्वारा होती है। यह जीवाणु रोगी बच्चे के गले और नाक में छिपे रहते हैं। खांसते, छोंकते समय जीवाणु बाहर निकल कर वायु में फैल जाते हैं और संक्रमण करते हैं। लक्षण • काली खांसी में रोग लगने के दो-तीन दिन बाद ही रोग के लक्षण स्पष्ट होने लगते हैं। पहले जुकाम तथा खांसी होती है, खांसते-खांसते मुंह लाल हो जाता है। आंखों से आंसू निकल आते हैं। सांस लेना मुश्किल हो जाता है। वमन हो जाता है। वमन के बाद ही खांसी का वेग कम होता है। • बार-बार खांसी तथा वमन होने से बच्चा निर्बल तथा शिथिल होने लगता है। खांसी का वेग प्राय: रात्रि को अधिक होता है। इससे बच्चा पूरी नोंद नहीं ले पाता। चिड़चिड़ा हो जाता है। खांसने में अधिक कष्ट होने पर कुत्ते के चूंकने की तरह आवाज होती है। इसलिए जनसाधारण में काली खांसी को कुकुर खांसी भी कहते हैं। उपचार • आधुनिक उपचार विज्ञान में काली खांसी को उपचार से अधिक रोकथाम पर अधिक बल
दिया गया है, अतः बच्चे को जन्म के पहले माह में ट्रिपल एंटीजेन इंजेक्शन दिया जाता है जिसके फलस्वरूप काली खांसी, टिटनेस व डिप्थीरिया रोगों से बच्चे का बचाव होता है। आयुर्वेद में ऐसा प्रावधान नहीं है किंतु काली खांसी को अत्यंत गुणकारी औषधियां मिलती हैं। • सुहागा, यवक्षार, कलमी शोरा, सेंधा नमक और फिटकिरी सब बराबर मात्रा में पीसकर आग पर हल्का-सा फुला लें। इस मिश्रण की तीन-चार रत्ती मात्रा शहद के साथ दिन में चार बार बच्चे को चटाने से बहुत लाभ होता है। स्वाद के लिए इसमें थोड़ी-सी दूध की मलाई भी मिला सकते हैं। मलाई से शुष्क खांसी में लाभ होता है और बलगम सरलता से निकल जाने पर खांसी का वेग कम होता है। • श्रृंग भस्म व श्वेत लाल भस्म शहद के साथ मिलाकर चटाने से रोग नष्ट होता है। • मोर के पंखों के ऊपरी चंद्र भाग को काटकर, किसी मिट्टी के पात्र में रखकर उसका मुंह कसकर बंद करके तेज आग पर गरम करें। जब मिट्टी के पात्र का रंग लाल हो जाए तो उसे आग से हटाकर ठंडा होने पर खोलें। मोर के पंखों की भस्म में सुहागा मिलाकर पीस लें व किसी शीशी में भरकर रख लें। यह मिश्रण प्रतिदिन तीन-चार बार शहद मिलाकर चटाने से काली खांसी शीघ्र नष्ट होती है। • अतीस, काकड़ासिंगी, पीपल, बहेड़ा 10-10 ग्राम तथा नौसादर और भुना हुआ सुहागा 5-5
ग्राम मिलाकर पीस लें। प्रतिदिन इस चूर्ण की चार-पांच ग्राम मात्रा शहद के साथ मिलाकर लेने से बहुत लाभ होता है। • सितोपलादि चूर्ण शहद मिलाकर चटाने से भी शीघ्र ही खांसी का वेग शांत होता है। सितोपलादि बलगम को नष्ट करती है और सांस का कष्ट कम होता है। खाली बैठे या बातचीत करते हुए किसी समय भी खांसी का दौरा उठ सकता है। ऐसे में यदि खदिरादि वटी को गोलियां मुंह में डालकर चूसते रहें तो खांसी नहीं उठती तथा रोग भो कम होता है। मुलहठी और मिश्री चूसते रहने से भी खांसी रुकी रहती है। • काली खांसी में भाप लेने से बहुत लाभ होता है। इसके लिए किसी बड़े पात्र में पानी गरम करके उसमें बेनजाइल या यूकलिप्टस तेल की कुछ बूंदें डालकर उसकी भाप में सांस लें। भाप के भीतर जाने से नाक व मुंह में छिपे रोग के जीवाणु तेजी से नष्ट होते हैं व फेफड़ों में जमा बलगम और शोथ भी ठीक होता है। • विशेष सावधानी : काली खांसी होने पर उपचार से अधिक सावधानी की आवश्यकता होती है। रोगी बच्चे को अधिक गरमी व अधिक सर्दी में जाने से व नंगे पांव घूमने से रोकें। • शीत ऋतु में रात्रि को बिस्तर पर सुलाने से पहले बिस्तर को हल्का गरम कर सकते हैं। इससे बच्चे को बिस्तर ठंडा नहीं लगेगा। बच्चे की छाती, गले, नाक के पास और कमर पर सैंधवादि तेल या सफेद तेल की मालिश करें। इनके उपलब्ध न होने पर विक्स वैपोरब
भीनाक, गले और छाती पर मल सकते हैं। बच्चे को पानी भी उबाल कर कुनकुना करके दीजिए। • बच्चे को औषधियां खिलाने में भी बहुत सावधानी की जरूरत होती है। काली खांसी के दौरे का मस्तिष्क से विशेष सम्बन्ध होता है। यदि बच्चा किसी भी तरह भयग्रस्त होगा तो खांसी का दौरा अवश्य उठेगा। इसलिए औषधि देते समय बच्चे को कभी डांटें-फटकारें नहीं, बड़े प्यार-दुलार से उसे औषधि खिलाएं। • बच्चे को दूध, चाय आदि भी धीरे-धीरे ही पीने को कहें, क्योंकि जल्दी करने से खांसी का दौरा प्रारम्भ हो जाता है। संक्रमण से बचने के उपाय • यदि छोटी माता, बड़ी माता और चेचक फैल रही हो तो नीम की कोपलों का सेवन करें। उबला हुआ पानी पिएं। नित्य यस पचियां तुलसी की खाएं, हरड़ का चूर्ण एक चम्मच पानी के साथ लें। इनके अतिरित करवी को साथ एक गांठ कटा हुआ एकन, दो नीबुओं का रस और चार लहसुन की कच्ची कलियां खाएं। इससे आप हुआ प्रकार के संक्रामक रोगों से बचे रहेंगे।
छोटी माता, बड़ी माता और खसरा • सरकारी मान्यता के अनुसार ये रोग प्रायः समाप्त हो चुके हैं। आजकल शिशु को तीन से छः माह की अवस्था में इन रोगों के टीके या दवा की बूंदें सरकार के स्वास्थ्य विभाग को ओर से दी जाती हैं। इसी प्रकार टी. बी. और पोलियो के लिए भी स्वास्थ्य विभाग की ओर से दवा दी जाती है तथा इंजेक्शन आदि स्वास्थ्य विभाग पोलियो के लिए भी देता है। माता-पिता का यह आवश्यक कर्तव्य है कि वे अपने बच्चों को सरकार द्वारा दी जाने वाली औषधियों/ इंजेक्शनों आदि का सेवन करवाएं। • यदि इसके बावजूद चेचक हो जाती है तो सरकार के स्वास्थ्य विभाग या योग्य डॉक्टर से सलाह लें। यदि आप किसी ऐसे दूर स्थित गांव में हैं, जहां ये सुविधाएं नहीं मिल पा रही हैं तो चेचक होने पर निम्नलिखित सावधानियां तथा उपचार पर ध्यान दें: • रुद्राक्ष को शुद्ध जल में घिस कर दिन में तीन बार दें। • तुलसी की 12 पत्तियों को तीन काली मिर्च के साथ पीसकर गरम जल से दिन में दो बार दें। • रोगी को लौंग डाला उबला हुआ पानी अधिक से अधिक मात्रा में दें। फिटकिरी के घोल से
प्रतिदिन कुल्ले करवाएं। रोगी को नमक नहीं दें। भोजन के रूप में केवल दूध, चाय व फलों का रस दें। • नीम की पत्तियों को रोगी के सिरहाने और पायताने रखें। कमरे के दरवाजे और चारों ओर कोनों पर भी नीम की अच्छी और ताजी पत्तियां रखें। खिड़कियां दरवाजों पर पर्दे डाल दें और कमरे को स्वच्छ रखें। रोगी की पोशाक तथा बिस्तर की चद्दर रोज बदलें। उसके मल-मूत्र और थूक को अलग पात्र में रखें तथा उसे जमीन में गड़वा दें। बच्चों को रोगी से बिल्कुल अलग रखें, रोगी की सेवा करने वाले व्यक्ति को चाहिए कि वह नित्य नीम की पांच-छह पत्तियों को आधा चम्मच शहद और आधा चम्मच काली मिर्च के चूर्ण के साथ सेवन करें। Read more…