0 likes | 17 Views
Charmarog aur aam vaastu ka samaadhaan! is lekh mein in pahaluon ke kaaran, lakshan aur prabhaavashaalee upaayon ke baare mein jaanen. svasth aur surakshit jeevan kee disha mein<br>
E N D
Charmarogke 10 nukasaan: jaaniekaaranaurupaay|चर्मरोग और आम समस्याएं: जानिए कारण और उपाय
त्वचा शरीर को सुरक्षित रखती है, सर्द-गर्म की संवेदना देती है और शरीर के दूषित तत्वों को बाहर निकालने का साधन है। यदि इसकी साफ-सफाई न रखी जाए, या फिर शरीर में कुछ विशेष विटामिन्स की कमी हो जाए, तो यह रोगी हो जाती है। कुछ रोग तो ऐसे हैं कि वे पूरे जीवन भर चिपके रहते हैं। सौंदर्य का संबंध भी काफी हद तक त्वचा से ही है। चमड़ी का सौंदर्य पहले दीखता है। इसलिए यह जरूरी हो जाता है कि इसे स्वस्थ रखा जाए। प्रस्तुत अध्याय में कुछ ऐसे सामान्य व असाध्य रोगों की चर्चा की गयी है, जिन्हें आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति द्वारा बिना किसी साइड आफ्टर इफेक्ट के निर्मूल किया जा सकता है। त्वचा संबंधी रोगों के अलावा, इस अध्याय में कुछ आम-सी दीखने वाली समस्याओं का उपचार भी दिया गया है। एक्जिमा त्वचा के विभिन्न रोगों में’ एक्जिमा’ बड़ा हठीला रोग है, यह त्वचा पर विभिन्न रूपों में प्रकट होता है, यह दो प्रकार का होता है- रक्तस्रावी एक्जिमा, और सूखा एक्जिमा।
लक्षण • एक्जिमा के प्रारम्भिक लक्षणों में सर्वप्रथम त्वचा लाल होकर सूख जाती है, रूपश्चात् वहां छोटी-छोटी फुसियां दिखायी देती हैं, बाद में ये फुसियां एकत्रित होकर फैल जाती हैं, जिससे दूषित स्राव निकलने लगता है, साथ ही उस स्थान में अधिक खुजलाहट के साथ दर्द का भी अनुभव होने लगता है। यह अवस्था कई सप्ताह तक बनी रहती है, यह रोग अधिकांशत: शरीर में कानों के पास गरदन, उंगलियों तथा घुटनों के मोचे पैर में होता है, पहले प्रकार में खुजलाहट के साथ स्राव भी होता है। सूखे एक्जिमा में खुजली के साथ आक्रांत स्थान से मृत त्वचा परत के रूप में निकलती रहती है, यह रोग बार-बार हो जाता है।
कारण • शरीर से विजातीय पदार्थों को बाहर निकालने में त्वचा का भी महत्वपूर्ण स्थान होता है, शरीर में स्थित अन्य मल निष्कासन अंग जब अपना कार्य समुचित रूप से नहीं करते, तब त्वचा का कार्य और अधिक बढ़ जाता है, जिसके कारण त्वचा कान्तिहीन होकर रोगों से आक्रांत होने लगती है, त्वचा द्वारा निकला हुआ विष ‘एक्जिमा’ के साथ-साथ कई रोगों का जन्म देने लगता है। इसके अतिरिक्त कुछ अन्य कारण भी इस रोग को बढ़ावा देते हैं, कुछ रासायनिक पदार्थों के अधिक सेवन करने, साबुन अधिक इस्तेमाल करने, कच्चे रंग में रंगा हुआ कपड़ा पहनने तथा गन्दे एवं सिंथेटिक कपड़ों को हमेशा व्यवहार में लाने से भी त्वचा उत्तेजित हो जाती है, जिससे यह रोग होता है। • मानव द्वारा आलस्य भरा जीवनयापन करना, श्रम का अभाव, शौच की अनियमितता, सदैव चटपटे एवं उत्तेजक खाद्य पदार्थों का सेवन करना, कब्ज का बराबर बने रहना, मादक पदार्थों का अति सेवन करते रहने से, शरीर में विजातीय पदार्थों का प्रभाव अधिक
हो जाने से भी यह रोग उत्पन्न होता है। अपचन, अजीर्ण, गठिया एवं मधुमेह से प्रसित रहने वाले को एक्जिमा अधिक होता है। उपचार • एक्जिमा को यदि औषधि से शरीर में दबा दिया जाता है तो कुछ दिनों के बाद यह दूसरे रोगों के रूप में फिर उभरकर सामने आता है, जैसे मस्तिष्क की विकृति, दमा, हृदय की बीमारी, अजीर्ण, सांस लेने में कष्ट आखों में सूजन, मिरगी और स्नायविक दुर्बलता आदि। • यह रोग प्राकृतिक उपचार से पूरी तरह समाप्त होता है, अत: इसकी मुक्ति के लिए सर्वप्रथम एक्जिमा के रोगी के रक्त में विद्यमान विजातीय पदाथों को कम करने की ओर विशेष ध्यान देना चाहिए, शरीर का जो भी विजातीय पदार्थ त्वचा मार्ग से बाहर निकलने की कोशिश कर रहा है, उसे मल तथा मूत्र के मार्गों से बाहर निकालना हो इस रोग की वास्तविक उपचार होगी।
प्राय: एक्जिमा के सभी रोगी कब्ज, अग्निमंदता, अजीर्ण आदि पाचन प्रणाली के दोषों से अवश्य पीड़ित होते हैं, अत: इन दोषों के समापन के लिए एक लीटर गुनगुने पानी में नीबू के रस को मिलाकर सुबह-शाम प्रतिदिन लगभग 15 दिनों तक एनिमा लेना चाहिए। एनिमा प्रत्येक रोगी को नीबू का रस मिला हुआ पांच-छह लीटर पानी प्रतिदिन पीते रहना चाहिए। यदि रोगी गंदी व घनी आबादी के बीच रहता हो तो उसे कुछ दिनों के लिए खुले, स्वच्छ, हवादार स्थान पर जाकर रहना चाहिए, वहां वह रहते हुए इन उपचारों के साथ-साथ सुबह-शाम खूब टहलें, खेलें तथा कुछ यौगिक व्यायाम भी करते रहें, इस रोग (एक्जिमा) की बहुत-सी अवस्थाओं में जो लाभ औषधि से नहीं होता, उससे कहीं अधिक लाभ उपयुक्त पथ्य एवं साधारण स्वास्थ्य नीति के अनुसरण से हो जाते हैं। • एक्जिमा के प्रत्येक रोगी को यह चाहिए कि वह दिन में दो-तीन बार हथेलियों से पूरे शरीर को रगड़कर ही स्नान करें। स्नान के बाद शरीर को वैसे ही हवा के सहारे सूखने दें, ऐसे रोगी जो नदी के किनारे रहते हैं, उन्हें सप्ताह में तीन-चार दिन नदी में स्नान करके उसके
तट पर पड़ी बालू में लेटना चाहिए या बाहर टहलकर शरीर के पानी को सुखा देना चाहिए, ऐसे प्रयोगों से एक्जिमा यथाशीघ्र ठीक हो जाता है| • रोगियों को प्रतिदिन सिर पर गीला तौलिया रखकर लगभग आधे घंटे तक धूप स्नान लेना चाहिए, शरीर से अधिक पसीना निकालने के लिए कभी-कभी दोपहर की कड़ी धूप में बैठकर शरीर से खूब पसीना निकालने का प्रयास करना चाहिए, इसके बाद त्वचा को खूब रगड़कर ठंडे पानी से स्नान करने से रोगी ताजगी का अनुभव करता है, रोगी शौच जाने के पहले एक विशेष प्रकार के टब में बैठकर लगभग 15 मिनट तक कटि स्नान अवश्य लें, इसमें आधे घंटे वह अपने पेडू पर वह गीली मिट्टी रखें इससे आंतों में तरावट आएगी, इसकी गर्मी भी कम होगी तथा आंतें सशक्त एवं मजबूत होकर अपना कार्य समुचित रूप से करने लगेंगी, त्वचा की सक्रियता के लिए प्रत्येक 15 दिनों पर एक्जिमा के रोगी को वाष्प स्नान अवश्य करना चाहिए, इस वाष्प स्नान से शरीर का दूषित पदार्थ त्वचा के रास्ते सरलतापूर्वक बाहर निकल जाता है। जिससे त्वचा पर लदा अनावश्यक
भार हल्का हो जाता है। कई चिकित्सकों ने अपने सर्वेक्षणों में पाया कि एक्जिमा के अधिकांश रोगियों का यकृत खराब रहता है। इसके उपचार के लिए लगभग एक सप्ताह में एक दिन में दो-तीन बार उस पर गरम ठंडा सेंक देना चाहिए, त्वचा के जिस भाग पर एक्जिमा हुआ हो उस भाग पर तीन दिन में तीन बार 5-5 मिनट तक सेंक देकर एक-एक घंटे के लिए (पानी) कपड़े की पट्टी रखने से उसमें विद्यमान विष खत्म हो जाता है, इस पट्टी के गरम होने पर इसे हटा लेना चाहिए। यदि एक्जिमा वाले भाग में अधिक जलन या गर्मी महसूस होती हो तो उस पर 24 घंटों में चार चार मिट्टी को लेप करनी चाहिए, इससे रोग का समापन शीघ्र हो जाता है। • ‘उपवास’ इस रोग से छुटकारा दिलाने में बड़ा कारगर सिद्ध हुआ है, मात्र नीबू का रस पानी पोंने उष्था क्षारीय फलों के रसों का सेवन करने से यह रोग बहुत शीघ्र ही समाप्त हो जाता है। उपवास करते ही जलन में कमी आने लगती है, शरीर का दूषित रक्त शुद्ध हो जाता है, जिससे शरीर के विभिन्न अंग नए रूप में कार्य करने लगते हैं
मानव शरीर में रक्त की कोशिकाएं क्षारीय पदार्थों में ही तैरती रहती है। अम्लीय पदार्थ कम होते हैं, लेकिन इस रोग में अम्लीय पदार्थों की अधिक तथा क्षारीय पदाथों की मात्रा कम हो जाती है। अतः इसका सन्तुलन बनाए रखने के लिए रोगी को मौसमी फलों का रस, कच्चा सलाद, हरी उबली सब्जी तथा सूखे मेवे, दूध व दही का अधिक प्रयोग करना चाहिए, साथ ही सभी प्रकार के अनाज, तेल, मिर्च-मसाला, दाल तथा मादक पदार्थों का त्याग करना चाहिए, रोग के समापन पर ही इनका प्रयोग थोड़ी-थोड़ी मात्रा में करें, रोगी को प्रात:काल के नाश्ते में विटामिन ‘ई’ से भरपूर अंकुरित अनाज के साथ-साथ कच्चे नारियल की गिरी का भी सेवन करना चाहिए, कई प्राकृतिक चिकित्सकों ने एक्जिमा रोग की समाप्ति में खरबूजे तथा गाजर के कल्प को बड़ा उपयुक्त पाया है, यदि रोगी मात्र एक सप्ताह तक दिन में 3-4 बार गाजर तथा खरबूजे को खाकर तथा इसके साथ गाय का धारोष्ण दूध (आधा लीटर) लेता रहे तो यह रोग यथा शीघ्र मिट जाता है, इस कल्प के बाद चोकरदार रोटी, हरी उबली साग-सब्जी तथा पर्याप्त सलाद का प्रयोग करना चाहिए, जिससे यह पुनः उत्पन्न नहीं होता है।
रिंगवार्म इन्फेक्शन (दाद) • मानव शरीर को ढकने वाली इस त्वचा को कई चीजों के सम्पर्क में रात-दिन आना पड़ता है, गन्दगी व अस्वच्छता त्वचा के मुख्य दुश्मन हैं, जो कई तरह के जीवाणु को त्वचा के सम्पर्क में लाते हैं, इससे साफ-सुथरी त्वचा कुरूप हो जाती है। मनुष्य त्वचा के रोगों के कारण शारीरिक व मानसिक रूप से बहुत ही परेशान हो जाता है, त्वचा के भीतर स्मेघ व मेघ ग्रन्थियां होती हैं, स्मेघ ग्रंथियों से उत्पन्न पसीने के कारण शरीर का तापमान विशेष नियन्त्रण में रहता है तथा मेघ ग्रंथि से उत्पन्न नाव त्वचा को स्निग्ध बनाता है। त्वचा शरीर का कवच है जो शरीर के भीतरी अंगों को बाह्य आघात, बातावरणीय परिवर्तन एवं रोगकारक जीवाणु आदि से बचाता है। त्वचा में होने वाले अनेक प्रकार के रोगों में फफूंदी से होने वाला त्वचा रोग रिंग वार्म इंफेक्शन आदि पाया जाता है, जिसे सामान्य लोग दाद के नाम से पहचानते हैं।
कारण इस रोग की उत्पत्ति फफूंदी से होती है, जो नमी तथा सीलन युक्त स्थान से अधिक होती है, उन व्यक्तियों में अधिक तेजी से फफूंदी बढ़ती है, जिन्हें पसीना अधिक आता है, बारिश में पहने गए कपड़े तथा शरीर गीले रहते हैं, जिससे फफूंदी के संक्रमण का खतरा रहता है। निम्न आर्थिक स्तर वाले लोगों में इस रोग की उत्पत्ति अधिक पायी जाती है। स्वच्छता और स्वास्थ्य की उपेक्षा की वजह से गरीब व गन्दी बस्तियों में रहने वाले लोगों में यह इंफेक्शन ज्यादा पाया जाता है, रोगग्रस्त व्यक्ति के साथ सम्पर्क से उसकी चीजें या कपड़े उपयोग में लाने से स्वस्थ व्यक्ति में संक्रमण फैलता है। प्रकार • स्थान के अनुसार इसके छ: प्रकार पाए जाते हैं-
टिनिया कपैटिस – इस प्रकार की फफूंदी सिर की त्वचा में अपना स्थान बनाती है, यह प्राय: छोटे बच्चों में पाई जाती है, इसमें रोगग्रस्त स्थान के बाल गिरने लगते हैं, बहां एक गोलाकार केश रहित स्थान बन जाता है, इस स्थान का वर्ण भूरे अथवा काले रंग का तथा छोटे-छोटे बाल युक्त होता है, रोगग्रस्त स्थान पर खुजली होती है, व्याधिग्रस्त कंधी का प्रयोग करने से भी यह रोग दूसरे व्यक्ति में फैलता है। • टिनिया बारबी – दाढ़ी के बाल में यह संक्रमण लगने पर उस स्थान पर वर्तुलाकार केश रहित स्थान बन जाता है, रोगग्रस्त व्यक्ति के उस्तरा आदि का उपयोग करने पर रोग हो सकता है, सैलून में एक ब्लेड से अनेक व्यक्तियों की दाढ़ी बनायी जाती है, वहां यह रोग जल्दी फैलता है। • टिनिया कारपोरिस – शरीर की त्वचा पर कहीं पर यह फफूंदी आक्रमण करती है. इसका प्रारम्भ एक छोटी फुन्सी से होता है। जो धीरे-धीरे बाहर की ओर फैलती है, मध्य का भाग स्वच्छ हो जाता है, और गोलाकार बाहरी भाग संक्रमण फफूंदीयुक्त होता है, यह भाग
सफेद, धूषण वर्ण से युक्त होता है, रोगग्रस्त भाग में खुजली आती है। • टिनिया कूरिस – जांघों में पाया जानेवाला यह प्रकार है। प्राय: गीली पँटीज पहनने पर अथवा वर्षा ऋतु में अंग भीग जाने पर अथवा अधिक श्वेद (पसीना) आने पर तथा अधिक मोटे व्यक्ति में यह पाया जाता है, दोनों जांघों के बीच से प्रारम्भ होकर आगे की तरफ यह पेट के निचले हिस्से तक बढ़ता है तथा पीछे की तरफ नितम्ब को ग्रस्त कर देता है। • टिनिया पेडिस व मैत्रम – हाथ तथा पैरों की उंगलियों में पाया जाता है, सतत् पानी में काम करना, हाथ-पैरों को पूरी तरह न सुखाना आदि से यहां पर फफूंदी को बढ़ावा मिलता है, पैरों के तलवों में फफूंदी का संक्रमण लगता है, अधिक समय बीत जाने तथा रोग की उपेक्षा करने पर वहां की त्वचा मोटी हो जाती है। कभी-कभी त्वचा में वर्ण उत्पन्न होकर अन्य रोग जन्तुओं का संसर्ग भी हो सकता है। • आनिकोमायकोसिस – हाथ तथा पैरों के नाखूनों में होने वाला यह रोग है,इनमें नखों
का प्राकृतिक गुलाथी वर्ण बदलकर श्वेत, धूसर, श्यामवर्णी हो जाता है, नख मोटे एवं उबड़-खाबड़ हो जाते हैं। नखों के ऊपरी व बाहरी भाग से प्रारम्भ होकर यह रोग नखों के बाहरी भाग को ग्रस्त करता है। सावधानियां • यह रोग नमी से फैलने वाला है, जिनकी अधिक स्वेद प्रवृत्ति होती है उन्हें बार-बार कपड़े बदलने चाहिए। • कपड़े सूती एवं ढीले हों। • टेलकम पाउडर का प्रयोग करें। • सिंथेटिक मोजे व कपड़ों का उपयोग न करें। • वस्व व तौलिया गरम पानी में कुछ समय तक भिगोने के पश्चात् निचोड़ें।
पैरों में बूट पहनने के बदले खुली आरामदेह चप्पलें पहनें। वर्षा ऋतु में शरीर को साफ पोंछकर सुखाया करें। विशेषकर हाथ व पैरों की उंगलियों के बीच का हिस्सा सुखा दें तथा उन पर पाउडर छिड़कें। • बगल-जांघ जैसे भागों को रोज साफ करें एवं सुखाकर रखें। • सैलून से आने के बाद तुरन्त शैम्पू से नहाएं। • अन्य व्यक्ति की कंघी का उपयोग न करें। उपचार • आधुनिक उपचार पद्धति में दो प्रकार से इसकी उपचार की जाती है। बाह्य उपचार • त्वचा पर लगाने के लिए विभिन्न प्रकार के मरहमों का उपयोग।
त्वचा मोटी होने पर मृतक कोशिकाओं को हटाने के लिए मरहम। • जन्तु संसर्ग होने पर जन्तु नाशक द्रव युक्त मरहम। • एक्जिमा सामान्य स्थिति के उत्पन्न होने पर स्टीरायड युक्त मरहम का प्रयोग। • पोटेशियम परमैग्नेट युक्त जल से संक्रमित त्वचा को धोना। नख अत्यन्त खराब दिखने पर ऑपरेशन से उसे निकालना। भीतरी उपचार • रोगी को ग्रीसोफल्वीन नामक द्रव का प्रयोग रोगावस्था एवं प्रकार के अनुसार 4 हफ्तों से लेकर 16-17 माह तक कराया जाता है। आयुर्वेदिक उपचार (बाह्य उपचार) • निम्न द्रव्य में गोरोचन मिलाकर सरसों के तेल से लेप करें।
अमलतास, चकवड़, करंज, अडूसा, गिलोय, मैनफल, हल्दी, व दारू हल्दी को मिलाकर उसका लेप। • बायबिडंग, कनेर की छाल, नीम, खादर और देवदार का लेप। • लहसुन शीरीष, गुग्गल, सहजन व कसीस का लेप। • मैनशिल, पिंड हरताल, इलायची, कसीस, लोध व लार का लेप। • कूड़ा हल्दी, दारू हल्दी, तुलसी, तीम, परवल, के पत्ते, सहजन के चूर्ण को छाछ में पीसें। सरसों के तेल से त्वचा मलकर यह उबटन लगाने के पश्चात् उष्ण जल से स्नान करें। • कूट, गिलोय, तूतीया, कसीस, नागरमोथा, लोध्र, गन्धक, राल, मैनशिल, पिंड हरताल, कनेर की छाल के चूर्ण को सरसों के तेल में घोंटकर व्याधिग्रस्त स्थान पर छिड़क दें, बाजार में उपलब्ध करंजाति या मारिच्यादि तेल को रोगग्रस्त स्थान पर हल्के हाथ से मलें। • खादिर, हरे आंवले, हल्दी, विलावर, अमलतास, सपतपर्ण कनेर, बायबिडंग, चमेली के
पत्ते, इन द्रव्यों का काढ़ा बनाकर 4-4 बार सेवन करें। • श्वेत चन्दन, अमलतास, लताकरंज, नीम, कुटज, सरसों, मुलहठी, दारू हल्दी, नागरमोथा, द्रव्यों से बनाए गए काढ़े को पीने से रोगी की खुजली कम हो जाती है, गन्धक रसायन 250 से 500 मिलीग्राम की मात्रा दिन में दो बार लें। खाज-खुजली कारण • यह रोग प्रकृति विरुद्ध शुष्क भोजन लेने से पेट में मल शुष्क हो जाने के कारण होता है। समयानुसार शौचादि न जाने के कारण मल पेट में सड़ने से उत्पन्न दूषित अंश रक्त के साथ मिलकर शरीर के विभिन्न अंगों में खुजली करते हैं। यह रक्तविकार के कारण भी हो जाता है। उपचार
सौ ग्राम नारियल के तेल में पन्द्रह ग्राम कपूर को भलो प्रकार मिलाएं। इसके लिए नारियल के तेल को थोड़ा गरम कर लें। इसे खुजली वाले स्थान पर भली प्रकार मलने से खुजली खत्म हो जाती है। • चार कली लहसुन, जो रात भर पानी में भीगी रही हों, नित्य खाएं और उसका पानी पिएं। शुद्ध घी में लहसुन (छह कलियां) को गरम करने के बाद उस को मालिश खुजली वाले स्थान पर करें। • केले के गूदे को नीबू के रस में पीसने के बाद खुजली वाले स्थान पर लगाने से लाभ होता है। मुंहासे • मुंहासे प्रायः किशोरावस्था का अन्त और युवाकाल का प्रारम्भ होने पर लड़के-लड़कियों को होते हैं। किसी के मुंहासे साधारण ढंग के होते हैं और किसी के इतने असाधारण कि
सारा चेहरा ही खराब हो जाता है।मुंहासों की बाहरी उपचार से ज्यादा, उचित खानपान और पेट को साफ रखने का प्रयास करना अधिक महत्वपूर्ण होता है, लिहाजा मुंहासों का होना बंद करने के लिए प्रतिदिन । चम्मच बाल हरड़ का चूर्ण ठंडे पानी के साथ रात को सोते समय लेना शुरू कर देना चाहिए ताकि पेट और आंतों की सफाई होने लगे। हरड़ के चूर्ण को मात्रा आवश्यकता के अनुसार बढ़ाई-घटाई भी जा सकती है। • जितनी मात्रा से पतले दस्त न लगें सिर्फ ठीक से बंधा हुआ मल साफ हो आया करे बही मात्रा उचित होती है। दूसरा काम यह करें कि तले पदार्थ, तेज मिर्च मसाले, पूरी-पराठे, डबल रोटी, बासी भोजन और अंडे, मांस (यदि खाते हों तो) खाना बिल्कुल बन्द कर दें। जितनी भूख हो उससे थोड़ा कम खाएं और कच्ची शाक-सब्जी सलाद के रूप में अधिक से अधिक खाएं। यदि एक सप्ताह सिर्फ कच्ची हरी सब्जी, सलाद, फल, दूध और ठंडे पानी में नीबू डालकर पीकर ही रह सकें, चपाती व पकी हुई दाल, शाक खाना बन्द रखें तो मुंहासों में तेजी से कमी होना शुरू हो जाएगा। शौच दोनों समय अर्थात् सुबह-शाम
अवश्य जाएं। इतना उपाय करने के साथ बाहरी उपाय के रूप में निम्नलिखित प्रयोग भी करते रहें। • लोध्र, धनिया, बच, अगर, सुगन्धबाला, मजीठ और कूट-सबको 50-50 ग्राम मात्रा में कूट-पीसकर चूर्ण करके मिला लें। इसमें मसूर का आटा 150 ग्राम और 25 ग्राम हल्दी मिला लें। सबको छलनी से 2-3 बार छान लें ताकि सभी पदार्थ भली-भांति मिलकर एक जान हो जाएं। इसमें से एक बार के प्रयोग के लिए एक बड़ा चम्मच (टेबल स्पून) भर चूर्ण एक कटोरी में रखकर इतना पानी डालें कि गाढ़ा लेप रहे। इसे आधा घंटे तक गलने दें। इसके बाद इसे पूरे चेहरे पर लेप कर दें और सूखने दें। यह काम आप अपनी सुविधा से उस वक्त करें जब यह लेप आधा-एक घंटे तक लगाए रख सके। घंटे भर बाद इसे रगड़-रगड़कर पोंछ डालें और गरम पानी में टॉवल (तौलिया) गोलाकर आंखें बन्द कर चेहरे पर रखकर भाप से सेंक करें। इतना उपाय करने से 1-2 सप्ताह में मुंहासे तो खैर ठीक होंगे ही, चेहरा भी कांति से चमचमाने लगेगा।
शरीर की दुर्गन्ध • चंदन, खस, हरड़, लोध्र, आम की छाल का लेप शरीर पर करके नहाने से शरीर की दुर्गन्ध नष्ट होती है। • हरड़, नीम के पत्ते, लोध्र, अनार की छाल और सतौना की छाल के चूर्ण का लेप शरीर को महकाता है। • हरड़ और बेल की जड़ का लेप कांख की दुर्गन्ध को दूर करता है। इन्द्रलुप्त (गंजापन) • गंजेपन की बीमारी में किसी प्रकार का शारीरिक कष्ट तो होता नहीं किंतु रोगी के मन में एक प्रकार की हीन भावना उत्पन्न होती है। गंजेपन के कारण व्यक्ति की सुन्दरता प्रभावित होती है। यह शरीर के किसी भी स्थान पर हो सकता है। किन्तु अधिकतर यह सिर के गोल घेरे वाले स्थान पर देखा जाता है। दाढ़ी में भी
यह गोल घेरे में पाई जाती है। गंजेपन की बढ़ी हुई स्थिति में दाढ़ी, पलकों, भौंहों के बाल भी उड़ जाते हैं। • आयुर्वेद में इसे ‘इन्द्रलुप्त’ या ‘खालित्य’ कहते हैं। आयुर्वेद के अनुसार रोगों की जड़ में रहने वाला रक्त, पित्त के साथ कुपित होकर रोमों को गिरा देता है। इसके बाद क्त के साथ कफ, रोमकूपों को रोक देता है जिससे फिर बाल पैदा नहीं होते हैं। इसे ही ‘प्रिलुप्त’ या ‘खालित्य’ या खजया कहते हैं। बोलचाल की भाषा में ‘गंज’ कहते हैं। • कहा जाता है कि यह रोग स्त्रियों में नहीं होता क्योंकि स्त्रियों का रक्त मासिक धर्म होते रहने से हर माह शुद्ध होता रहता है। ऐसा भी माना जाता है कि अधिक मानरिक विता, दुःख, शोक एवं राहत के कारण यह रोग होता है। एक प्रकार के रोगकारक जोवाणुओं के कारण भी इसकी उत्पत्ति होती है। उपचार
आयुर्वेद उपचार में स्नेहन एवं स्वेदन क्रिया को इस रोग में हितकारी दर्शाया गया है। • भाव प्रकाश के अनुसार कड़वे परवलों के पत्ते का स्वरस निकालकर गंज पर मलने से लाभ होता है। • गन्धक पानी से पीसकर एवं शहद मिलाकर लगाने से गंज रोग में लाभ होता है। कटेरी का रस शहद में मिलाकर गंज वाले स्थान पर लगाने से गंज रोग नष्ट हो जाता है। • थोड़ी-सी दही, तांबे के बर्तन में इतनी देर तक घोंटना चाहिए कि वह हरी हो जाए। हरे हो जाने पर गंज वाले स्थान पर लेप करने से लाभ होता है। • भृंगराज या भांगरा इस रोग में उत्तम औषधि है। भांगरा पीसकर मलने से गंज रोग दूर हो जाता है। इससे निर्मित महाभृंगराज तेल, नीली भृगादि तेल बाजार में तैयार मिलते हैं। नहाने से लगभग आधा घंटे पहले सिर की त्वचा पर धीरे-धीरे इस तेल की मालिश करनी चाहिए। मालिश से बहुधा सिर में उगे सभी कमजोर बाल गिर जाते हैं, किन्तु इससे घबराना नहीं चाहिए। बाद में लगातार मालिश से नए बाल आने लग जाते हैं।
तेल लगाने के साथ रोगी को भांगरे का चूर्ण भी एक चम्मच की मात्रा में शहद में मिलाकर दिन में दो बार खाली पेट सेवन करना चाहिए। • आंवलों को चुकन्दर के रस में पीसकर लगाने से लाभ होता है। • गोखरू एवं तिल के फूलों में उनके बराबर घी एवं शहद मिलाकर सिर पर • लगाने से सिर पर बाल आने लग जाते हैं। • गंज रोग में हाथी दांत भी लाभप्रद दर्शाया गया है। हाथी दांत का भस्म तैयार कर प्रयुक्त की जाती है। इस विषयक कहा गया है- • हाथी दांत की भस्म एवं रसौत दोनों को बराबर-बराबर मात्रा में लेकर घो एवं दूध मिला दें। जिसके सिर के बाद गिर जाते हों उसके सर में इसका लेप करें। इस उपाय से गंज रोग नष्ट हो जाएगा एवं सिर के बाल फिर कभी नहीं गिरेंगे। • हाथी दांत की भस्म को घी या शहद में मिलाकर गंज वाले स्थान पर रगड़ कर लगाया
जाता है। यह भस्म रात के समय लगाना उचित रहता है, क्योंकि औषधि रात भर सिर पर लगी रहने से अधिक प्रभावी होती है। • उपरोक्तानुसार आयुर्वेदिक औषधियां लाभप्रद तो हैं ही इसके अलावा आहार सम्बन्धी ध्यान रखना भी जरूरी है, क्योंकि बाल गिरने का मुख्य कारण कमजोरी है। अतः संतुलित व पौष्टिक भोजन ग्रहण करना ही उचित है। भोजन में घी, मक्खन, दूध, विभिन्न फलों एवं शाक-सब्जियों का पर्याप्त समावेश करना चाहिए। बहुत ज्यादा मिर्च-मसाले युक्त भोजन न का त्याग करना जरूरी है। रोगी को व से बचना मानसिक तनाव से ब चाहिए। चिन्ता, शोक, क्रोध आदि मनोवेगों से दूर रहें। रात को देर तक जागना, अधिक • सहवास, मल-मूत्र आदि वेगों को रोकना हानिप्रद है। इसके अलावा कब्ज न होने दें। पेट साफ करने के लिए त्रिफला चूर्ण का सेवन करें। प्रातः उठकर खाली पेट 2-3 गिलास पानी पीना भी लाभदायक है। प्रात: पैदल भ्रमण के लिए जाएं।
पलित रोग • आयुर्वेद में बाल सफेद होने को ‘पलित’ रोग कहते हैं। आयुर्वेद के अनुसार शोक एवं परिश्रम आदि से कुपित हुई वायु शरीर की गर्मी को सिर में ले जाती है। मस्तक में रहने वाला भ्राजक पित्त भी कुपित हो जाता है। कुपित हुआ एक दोष दूसरे दोष को भी प्रकुपित करता है। वात एवं पित्त, कफ को भी कुपित करते हैं। इस तरह कुपित हुआ कफ बालों को सफेद कर देता है। इस प्रकार तीनों दोषों के प्रकुपित होने से बाल सफेद हो जाते हैं। उपचार • बालों की सुरक्षा के लिए उनकी उचित देखभाल, पौष्टिक एवं संतुलित भोजन ग्रहण करने का विशेष महत्व है। • सिर के बालों को काले बनाए रखने के लिए त्वचा की स्नेह ग्रन्थियों में पर्याप्त
(संतुलित) चिकनाई या स्निग्धता बनी रहनी चाहिए। रक्त संचार सुचारु रूप से होने पर बालों का विकास समुचित रूप से होता है। पौष्टिक आहार की कमी से जहाँ बाल निर्जीव होकर गिरने लग जाते हैं, वहीं असमय सफेदी आने लग जाती है, अत: बालों की विशेष देखभाल जरूरी है। • बालों में प्रतिदिन तेल लगाना चाहिए। आयुर्वेद में ऐसे अनेक गुणकारी तेल एवं औषधियां उपलब्ध हैं जैसे-भृंगराज तेल, आंवला, ब्राह्मी, तिल तेल आदि। • भृंगराज (भांगरा) तेल सिर में मालिश करने के अलावा भांगरा सेवन करना भी लाभप्रद है। भांगरा को खूब पीसकर बारीक बनाया हुआ चूर्ण एवं काले तिल (साबुत) दोनों बराबर मात्रा में मिलाकर रख लें। प्रतिदिन सुबह उठते ही मुंह धोकर इस मिश्रण को एक चम्मच की मात्रा में खूब चबाकर खाएं एवं ऊपर से ताजा जल लें। लगातार छः माह के प्रयोग से समय से पहले बालों का पकना एवं झड़ना ठीक हो जाता है। बाल काले बने रहते हैं एवं असमय सफेद नहीं होते।
दूसरा लाभप्रद योग इस प्रकार है-भृंगराज सूखा, काले तिल, सूखा आंवला, मिश्री चारों को बराबर मात्रा में लेकर कूट-पीसकर चूर्ण को प्रतिदिन छः ग्राम की मात्रा में खाकर ऊपर से पाव भर दूध पीने से लाभ होता है। • नीबू के छिलके को नारियल के तेल में डुबोकर आठ-दस दिन धूप में रख दें। फिर इसे छानकर बालों की जड़ों में रगड़ें, बाल काले होते हैं। • आंवले पांच नग, हरड़ दो नग, बहेड़ा एक नग, लौह चूर एक तोला, आम की भींगी 5 तोला इन सबको लोहे के बर्तन में महीन पीसकर थोड़ा पानी मिलाकर रात भर खरल में ही पड़ा रहने दें। दूसरे दिन इसका लेप बालों पर करें। इस तरह निरन्तर प्रयोग करने से बाल काले हो जाते हैं। • आधा किग्रा. सरसों का तेल, रतनजोत, मेहंदी के पत्ते, जल भांगरा के पत्ते, आम की गुठलियां प्रत्येक 50 ग्राम इन सबको कूटकर लुगदी बना लें एवं पानी में दो दिन भिगो दें। पानी इतना होना चाहिए कि औषधियां उसमें डूबी रहें। फिर इस पानी को छान लें एवं
लुगदी को निचोड़ दें। इस पानी को सरसों के तेल में इतनी देर उबालें कि पानी सारा जल जाए एवं केवल तेल ही शेष रहे। इस तेल को छानकर प्रतिदिन सिर में लगाना लाभप्रद है। • उपचार के अलावा आहार-विहार सम्बन्धी समुचित सावधानी रखना भी आवश्यक है। भोजन पौष्टिक एवं संतुलित लेना चाहिए। रात को देर से सोना, अधिक सहवास, अधिक चिन्ता, अधिक भूखा रहना या उपवास करना, कब्ज, बालों को गरम पानी से धोना एवं ड्रायर से सुखाना, अधिक गरम भोजन का सेवन, शारीरिक शक्ति से अधिक श्रम, अधिक समय तक धूप में रहना हानिप्रद है। • बालों को साबुन से नहीं धोना चाहिए। साबुन के स्थान पर मुलतानी मिट्टी या बेसन का प्रयोग करना उचित है। सप्ताह में एक-दो बार बेसन को पानी में भली-भांति भिगोकर बालों में लगाकर एक घंटे के बाद सिर धोना चाहिए। • मुलतानी मिट्टी का प्रयोग करना हो तो 100 ग्राम मिट्टी एक बर्तन में लेकर पानी में भिगो
दें।जब यह एक-दो घंटे में फूलकर लुगदी-सी बन जाए तो हाथ से मसलकर हा-सा घोल बना लें। इस गाढ़े घोल को सूखे बालों में ही डालकर हाथों से धीरे-धीरे गाढ़ा-सा रगड़ें। पांच मिनट बाद पानी से धो लें। यदि शीत ऋतु हो तो गुनगुने पानी से एवं ग्रीष्म ऋतु में ठंडे पानी से धोएं। यदि बालों में मैल अधिक है तो दुबारा ऐसा ही करें।। सप्ताह में दो बार मुलतानी मिट्टी से बाल धोना बालों के लिए अत्यन्त लाभप्रद है। • साबुन के स्थान पर दही का प्रयोग भी किया जा सकता है। 100 ग्राम दही में एक ग्राम काली मिर्च बारीक पिसी हुई मिलाकर सप्ताह में एक बार सिर धोने से लाभ होता है। दही लगाने पर बाल गुनगुने पानी से धोना उचित होता है। दही के प्रयोग से बाल काले होते हैं एवं झड़ना चन्द हो जाता है। • आंवला भी बालों के झड़ने एवं असमय सफेद होने में प्रभावी है। एक चम्मच आंवला चूर्ण दो घंट पानी के साथ रात को सोते समय लेना चाहिए।
आंवलों के उपरोक्तानुसार सेवन करने के अलावा इसका लेप बनाकर भी बालों में लगाया जा सकता है। इसके लिए सूखे आंवलों के चूर्ण को पानी के साथ पेस्ट बनाकर सिर पर हल्के हाथों से लेप करने तथा पांच-दस मिनट बाद बालों को धोने से बाल सफेद होने एवं गिरने बन्द हो जाते हैं। • 250 ग्राम सूखे आंवलों को मोटा दरदरा कूटकर टुकड़ों को पाव भर पानी में रात को भिगो दें, प्रात: फूले हुए आंवलों को कड़े हाथ से मसलकर इसका पूरा पानी साफ वस्त्र से छानकर इस निथरे हुए पानी को बालों की जड़ों में हल्के हाथ से मसलें एवं 10-20 मिनट बाद बालों को धो दें। • बाल सूखे हों तो सप्ताह में एक बार, चिकनाई युक्त हों तो सप्ताह में दो बार धोना उपयुक्त है। चाहे तो सप्ताह में 3-4 बार भी धो सकते हैं। इस प्रयोग से बालों का गिरना एवं टूटना बन्द हो जाता है। बालों की जड़ों में मजबूती आ जाती है। बाल काले, घने एवं चमकदार बनते हैं। यदि बाल गिरने का कारण नजला या मानसिक दुर्बलता हो तो
उपरोक्त योग अत्यन्त लाभप्रद है। • नीबू के रस में दो गुना नारियल का तेल मिलाकर उंगलियों की पोरों से धीरे-धीरे बालों की जड़ों में मालिश करना भी लाभप्रद है। इससे बालों से सम्बन्धित सभी रोग दूर हो जाते हैं व बाल मुलायम बनते हैं। बालों के झड़ने में भी यह प्रभावी है। Read more…